डरते थे कभी मौत से
अब जिंदगी से डरने लगे
रिश्तो के इस भवर में अब हम
डूबने उतरने लगे ।
अपने ही अब बन गए
जी का जंजाल,
दूर तक दिखते है बस
रिश्तो के कंकाल ।
अपनो के हाथो से बोया हुआ एक पौधा,
पेड़ बन कर जिसने अपनों को ही कुछ इस तरह दिया धोखा ,
खून और लोथडो से धरती परवान चढ़ गई ,
क्या हमारी आप की आत्मा भी वक्त के साथ मर गई ।
इंसानियत आज फिर जार - जार हो गई ,
मौत जिंदगी को परे धकेल समय के पार हो गई ।
परछाइयो के पीछे भागते - भागते
थक गया इन्सान ,
अब तो दूर तक भी दीखते नही
अपने कदमो के निशान ।
जिंदगी में ही कुछ ऐसा
सिमट गया इन्सान ,
अब तो dhudhne से भी मिलते नही
अपनों के निशान ।
Sunday, December 14, 2008
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