डरते थे कभी मौत से
अब जिंदगी से डरने लगे
रिश्तो के इस भवर में अब हम
डूबने उतरने लगे ।
अपने ही अब बन गए
जी का जंजाल,
दूर तक दिखते है बस
रिश्तो के कंकाल ।
अपनो के हाथो से बोया हुआ एक पौधा,
पेड़ बन कर जिसने अपनों को ही कुछ इस तरह दिया धोखा ,
खून और लोथडो से धरती परवान चढ़ गई ,
क्या हमारी आप की आत्मा भी वक्त के साथ मर गई ।
इंसानियत आज फिर जार - जार हो गई ,
मौत जिंदगी को परे धकेल समय के पार हो गई ।
परछाइयो के पीछे भागते - भागते
थक गया इन्सान ,
अब तो दूर तक भी दीखते नही
अपने कदमो के निशान ।
जिंदगी में ही कुछ ऐसा
सिमट गया इन्सान ,
अब तो dhudhne से भी मिलते नही
अपनों के निशान ।
Sunday, December 14, 2008
Sunday, November 23, 2008
तलाश
तलाश है, एक और देवदास की,
पारो तो फिर भी मिल जाती है
नही मिलते है तो सच्चे देवदास।
पारो आज भी चढ़ जाती है विवाह की वेदी पर ,
कभी इज्जत के नाम पर ,
कभी पैसो के नाम पर ,
पर देवदास अब धूल नही फांकते ,
आँसू नही बहाते,
पारो की देहरी पर एडिया रगड़ कर नही मरते ,
क्योकि मर जाते है जज्बात,
बह जाते है आँसू
नई पारो की तलाश मे
पारो तो फिर भी मिल जाती है
नही मिलते है तो सच्चे देवदास।
पारो आज भी चढ़ जाती है विवाह की वेदी पर ,
कभी इज्जत के नाम पर ,
कभी पैसो के नाम पर ,
पर देवदास अब धूल नही फांकते ,
आँसू नही बहाते,
पारो की देहरी पर एडिया रगड़ कर नही मरते ,
क्योकि मर जाते है जज्बात,
बह जाते है आँसू
नई पारो की तलाश मे
Sunday, November 16, 2008
जिंदगी
कहीं पढा था,
कि इन बंद कमरों में मेरी साँस घुटी जाती है ,
खिड़कियाँ खोलता हूँ तो जहरीली हवा आती है ।
क्या हम भी कभी इन रास्तो से दो - चार नही होते ,
मरते है पर जीने कि चाह नही खोते ।
सिसकते - सिसकते ही सही गम खुशियों में बदल जाते है ,
गिरते - उठते ही सही जीना हम सीख जाते है ।
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