कहीं पढा था,
कि इन बंद कमरों में मेरी साँस घुटी जाती है ,
खिड़कियाँ खोलता हूँ तो जहरीली हवा आती है ।
क्या हम भी कभी इन रास्तो से दो - चार नही होते ,
मरते है पर जीने कि चाह नही खोते ।
सिसकते - सिसकते ही सही गम खुशियों में बदल जाते है ,
गिरते - उठते ही सही जीना हम सीख जाते है ।
2 comments:
very good
aapki yeh rachana achhi hai. lekin is kriti me aap me nirasha saf jhalkti ahi.
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