Sunday, November 16, 2008

जिंदगी

कहीं पढा था,

कि इन बंद कमरों में मेरी साँस घुटी जाती है ,

खिड़कियाँ खोलता हूँ तो जहरीली हवा आती है ।

क्या हम भी कभी इन रास्तो से दो - चार नही होते ,

मरते है पर जीने कि चाह नही खोते ।

सिसकते - सिसकते ही सही गम खुशियों में बदल जाते है ,

गिरते - उठते ही सही जीना हम सीख जाते है ।

2 comments:

ajay said...

very good

santosh kumar gupta said...

aapki yeh rachana achhi hai. lekin is kriti me aap me nirasha saf jhalkti ahi.